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शक्ति आराधना के वैज्ञानिक पक्ष

04/10/2022
डा. दीपिका दीक्षित
शक्ति की आराधना" का आशय नौ दिन शक्ति की मात्र आराधना, परम्परा और सामाजिक नियम ही नहीं है अपितु यह प्रकृति की नवीनता, उपवास के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि, नवशक्ति से नूतन ऊर्जा का ग्रहण तथा नव शक्ति रूप नव औषधियों से शारीरिक पुष्टि द्योतित करता है।
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शक्ति की आराधना इन शब्दों को सुनकार प्रायः हम सभी एक पूर्वाग्रह निर्मित  कर लेते हैं कि नौ दिन तक माँ का उपवास रखना है और नौ दिन माँ की पूजा-अर्चना विधि-विधान से करनी है। पर परिवर्तनशील  समय के अनुसार समय-समय पर सामाजिक भिन्नता इसमें सम्मिलित होती गई । हम सभी अपने बनाये नियमों के अनुसार सुविधापूर्वक ही नवरात्रि का तात्पर्य केवल उपवास, पूजा तथा कन्याभोज तक सीमित समझ बैठें है। इससे अधिक इसका क्या महत्त्व है? यह विधिपूर्वक उपवास की आवश्यकता क्यों है? नौ दिन ही उपवास क्यों है? नौ दिन उपवास का कारण और महत्त्व क्या है? नौ दिन उपवास से हमारे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक जीवन में क्या परिवर्तन होता है? इन सभी प्रश्नों की अन्तर्मन में जिज्ञासा अवश्य होनी चाहिए क्योंकि परिवर्तित समय और विचारधार ने आज के मानव को अधिक जिज्ञासु तथा गवेषणात्मक बना दिया है। नवदिन शक्ति की आराधना मात्र परम्परा और सामाजिक नियम ही नहीं है अपितु यह प्रकृति की नवीनता, उपवास के माध्यम से शरीरिक एवं मानसिक शुद्धि, नव शक्तिसे नूतन ऊर्जा का ग्रहण तथा नव शक्ति रूप नव औषधियों से शारीरिक पुष्टि को भी द्योतित करता है।

 

मान्यतानुसार ब्रह्माजी के दुर्गा कवच में वर्णित आद्याशक्ति नव दुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में विद्यमान, शरीर के विकारों को दूर कर शारीरिक पुष्टि प्रदान करती हैं ।

मार्कण्डेयपुराणानुसार कथित है ‘रोगानशेषानपहंसि तुष्टा’
अर्थात भगवती प्रसन्न होने पर समस्त रोगों का नाश कर देतीं हैं

प्रथम शैलपुत्री (हरड़) – विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर करने वाली औषधी हरड़ हिमावती है, जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधियों में से एक है। यह पथया, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।

ब्रह्मचारिणी (ब्राह्मी) – ब्राह्मी रक्तविकारों को दूर कर, स्वर को मधुर बनाती है तथा आयु व स्मरण शक्ति में वृद्धि करती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।

चन्द्रघण्टा (चन्दुसूर) – धनिया के पौधे के समान दिखने वाली यह औषधि मोटापा दूर करने में लाभकारी है, इसलिए इसे चर्महन्ती भी कहते है।

कूष्माण्डा (पेठा) – इस औषधि से पेठा मिठाई बनने के कारण इस रूप को ‘पेठा’ कहते है। इसको कुम्हड़ा नाम से भी जाना जाता है। यह रक्त विकार दूर कर पेट को साफ करने में सहायक है तथा मानसिक विकारों (रोगों) में यह अमृत तुल्य औषधि है।

स्कन्दमाता (अलसी) – देवी स्कन्दमाता औषधि रूप में अलसी में विद्यमान है। यह वात, पित्त व कफ त्रय रोग नाशक औषधि है।

कात्यायनी (मोइया) – आयुर्वेद में कात्यायनी देवी अम्बा, ‘अम्बालिका’ व ‘अम्बिका’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त इन्हें ‘मोइया’ भी कहते हैं। यह औषधि कफ, पित्त तथा गले के रोगों में लाभप्रद है।

कालरात्रि (नागदौन) – यह देवी ‘नागदौन’ औषधि के रूप में जानी जाती हैं। मन एवं मस्तिष्क के विकारों को दूर कर यह सभी प्रकार के रोगों के लिए लाभप्रद औषधि है।

महागौरी (तुलसी) – तुलसी एक पवित्र व दिव्य औषधि है। यह वातावरण में आक्सीजन की मात्र को अधिक बनाये रखती है। सफेद तुलसी, काली तुलसी , मरूता, दवना, कुढरेक, अर्जन, और षट पत्र रूप से सात प्रकार की होती है।यह रक्त को साफ कर हृदय रोगों का नाश करती है।

सिद्धिदात्री (शतावरी) – आदिशक्ति का नौवां रूप सिद्धिदात्री है, जिसे नारायणी शतावरी कहते हैं ।यह बल, बुद्धि और विवेक के लिए लाभकारी औषधि है।

शक्ति के नवरूपों का सृष्टि में साक्षात्कार

शैलपुत्री – शैल (पर्वत) के समान दृढ़ स्थिर सम्पूर्ण जड़ पदार्थ भगवती का प्रथम स्वरूप है। क्षिति जल, पावक, गगन, समीर तथा पाषाण सब शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं।सृष्टि के प्रत्येक जड़ पदार्थ में भगवती को अनुभव करना ही माँ के इस स्वरूप के  पूजन का उद्देश्य है।

ब्रह्मचारिणी – जड़ पदार्थ में ज्ञान का प्रस्फुरण तथा चेतना का संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। जड़ चेतन के संयोग से ही सृष्टि का निर्माण होता है। सृष्टि के प्रत्येक अंकुरण में भगवती का यह अनुपम रूप विद्यमान है।

 

चन्द्रघण्टा – यह भगवती का तृतीय स्वरूप है। सृष्टि के समस्त जीवों में वाणी का प्रादुर्भाव होता है जिसकी अन्तिम परिणिति मनुष्य में वाणी (बैखरी) हैं।

कुष्माण्डा – यह देवी का चतुर्थ स्वरूप है। बीज रूप अण्ड को धारण करनेवाली, गर्भाधान शक्ति जो भगवती की ही शक्ति है। जिसे सृष्टि की समस्त मादाप्राणी मात्र में देखा जा सकता है।

स्कन्दमाता – यह देवी का पांचवां स्वरूप है। पुत्र-पुत्री से युक्त माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं। इस रूप में वात्सल्य को समस्त प्राणिमात्र में देखा व अनुभव किया जा सकता है।

कात्यायनी –  देवी के छठे स्वरूप में कात्यायनी माँ, कन्या की माता-पिता हैं ।

कालरात्रि – आदिशक्ति का यह सातवां रूप है | जिसमें समस्त जड़, चेतन पदार्थ काल (मृत्यु) को प्राप्त हो जाते हैं । मृत्यु के समय समस्त प्राणियों को माँ के इस स्वरूप का अनुभव होता है।उपर्युक्त आधाशक्ति के सातों स्वरूपों का समस्त प्राणी प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं, परन्तु भगवती का आठवां और नौवें स्वरूप के दर्शन अप्रत्यक्ष रूप से अनुभवगम्य हैं ।

महागौरी – आदिशक्ति का आठवां स्वरूप महागौरी गौर वर्ण का है। माँ का यह स्वरूप संसार में पवित्रता और शुद्धता का प्रतीक है।

सिद्धिदात्री – भगवती का नौवां रूप सिद्धिदात्री है। यह ज्ञान तथा वोध का प्रतीक है। जिसे जन्म-जन्मातर के तप तथा सिद्धि के द्वारा ही साधक प्राप्त कर, परम सिद्ध होकर सिद्धिदात्री स्वरूप का अनुभव के द्वारा साक्षात्कार कर सकता है।

 

नवदेवियों का वैज्ञानिक मतानुसार विवेचन

नवदुर्गा के नौ रूपों से नव विकार जब Space & time में आकर गिरतें हैं तो सृष्टि में नौ ऊर्जाओं का निर्माण प्रारम्भ होता है।

नाम

विकार

ऊर्जा

शैलपुत्री

घनता का विकार

स्थिर ऊर्जा

ब्रह्मचारिणी

विकासन का विकार

गतिज ऊर्जा

चन्द्रघण्टा

प्रसारण का विकार

ध्वनि ऊर्जा

कूष्माण्डा

गभृकृत विकार

नाभिकीय ऊर्जा

स्कन्दमाता

आकर्षण का विकार

चुम्बकीय ऊर्जा

कात्यायनी

संकुचन का विकार

आणविक  ऊर्जा

कालरात्रि

विकल्पन का विकार

तापकीय ऊर्जा

महागौरी

ज्योति का विकार

विद्युतीय ऊर्जा

सिद्धिदात्री

पुष्टि का विकार

रासायनिक ऊर्जा

 

 

आद्याशक्ति के चरित्र, उपवास, आराधना के महत्व से अवगत होने के पश्चात् यह ज्ञात होता है कि सुप्तावस्था में विद्यमान शक्ति को जाग्रत किये बिना सृष्टि में किसी भी प्रकार की सफलता असम्भव है क्योंकि असफलता पर सफलता के विजय उद्घोष के लिए जगजननी की अर्चना के द्वारा ही मन और शरीर को सुदृढ़ करके अपनी पूर्ण शक्ति तथा एकादश इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। वस्तुतः हमारी इन्द्रियाँ सदैव पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं रहतीं, जिसके कारण इन्द्रियां  मलिन होकर ‘मधुकैटभ’, ‘शुम्भ-निशुम्भ’ तथा ‘रक्तबीज’ की भांति आत्मघाती पाशविक प्रवृत्ति और शक्तियों को उत्पन्न करती हैं ।

जिनका सम्यक विनाश भगवती दुर्गा द्वारा प्रदत्त बुद्धि शक्ति के बिना असम्भव है। आदिशक्ति का पराक्रमयुक्त चरित्र और इस कथानक को यदि व्यवहारिक धरातल पर मूल्यांकित करें तो समाज में व्याप्त अभद्र व्यवहार को शामित करने हेतु एक दैवीय शक्ति और दैवीय नियम को प्रस्तुत होना पड़ता है। यहाँ पर शुम्भ रूप लावण्य के कारण भगवती दुर्गा की कामना करता है और विनाश को प्राप्त करता है। यहां पर भी यह स्पष्ट होता है कि दुष्टों के नाश के लिए मिथ्या भाषण भी समुचित है।

आदिशक्ति का पराक्रम युक्त चरित्र और देवताओं के अंशो से आद्याशक्ति के शरीरावयवों की निर्मिति से नौ दिन माँ की आराधना और स्मरण से नियमनिष्ठ रहकर नश्वर संसार की असारता का वोध होकर अमृत तत्व तथा अपने अस्तित्व के मूल स्त्रोत से साक्षात्कार का सुअवसर है। यह ऐसा समय होता है जिसमें शरीर मन की वढ़ी संवेदनशीलता को मर्यादित जीवन और साधना द्वारा हम आत्मविकास में नियोजित कर सकते हैं। वस्तुतः नवरात्रि के नौ दिन जीवन साधने की कला के  दिन हैं ताकि जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकें। नवरात्रि आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि की अवधि है और पारम्परिक रूप से नूतन कार्य तथा उद्यम के लिए एक शुभ तथा धार्मिक समय है।

 

 

डा. दीपिका दीक्षित मूलतः MJP रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, लखनऊ विश्वविद्यालय, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय से  अध्ययन एवं शोध कार्य के अनन्तर तीन वर्षों तक वेदवती कन्या महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। डा. दीक्षित तीन विषयों (संस्कृत, हिन्दी, एवं  शिक्षाशास्त्र) से परास्नातक (M. A.) एवं संगीत प्रभाकर और संगीताचार्य (गायन, वादन, एवं भावसंगीत) किया है। डा. दीक्षित भारत एवं विदेशों के विविध ख्यातिलब्ध पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादिका/पुनर्वीक्षिका रहीं हैं।  डा. दीक्षित दशाधिक शोधपत्रिकाओं तथा ग्रन्थों में महिलाध्ययन के विविध वैज्ञानिकपक्षों से सन्दर्भित आलेखों का लेखन एवं प्रकाशन किया है। इसके साथ इन्होंने विविध अन्ताराष्ट्रिय एवं राष्ट्रिय संगोष्ठियों एवं कार्यशालाओं में महिलाध्ययन विषयक ज्वलन्त मुद्दों पर अपना मन्तव्य विविध प्रामाणिक साक्ष्यों के आधार पर प्रस्तुत किया है। वर्तमान में डा. दीक्षित स्वतन्त्र रूप से प्राच्यवाङ्मय में निहित महिलाध्ययन गूढ-स्वरूप को वर्तमान कालिक  अवधारणाओं के अनुकूल शोधकार्यों मे संलग्न हैं।

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