

यह संवत्सर का वह समय है जब जगत के समस्त जीव प्रसन्नता से भरे होते हैं। एक नन्ही चींटी हो, पशु पक्षी हों या फिर पेड़ पौधे, मानो वे ब्रह्मांडीय स्तर पर अपनी सुप्तावस्था से प्रफुल्लित जागृति की मीठी लालिमा में जाग उठे हों।
हम भी अपने भीतर एक अनजानी ख़ुशी अनुभव करते हैं। शिशिर ऋतु समाप्त हो चुकी है, तेजस्वी सूर्यदेव अपना मार्ग बनाते हुए निरभ्र आकाश में उदित हो रहे हैं। समस्त जीव उस दिव्यता को अनुभव करते हैं, जिससे वसुंधरा एक नवीन, निखरी हुई ऋतु का पुनुरुज्जीवन आरम्भ करती हैं।
शिव भक्त तो ऐसे आनंदित प्रतीत होते हैं मानो किसी दिव्य आभा का उनके मुखमण्डल पर उदय हुआ हो। वे व्यस्त तो होते हैं, किंतु परम हर्ष, उल्लास के साथ मंगल आनंदोत्सव मनाते हुए।
और क्यों न हों?
संवत्सर के इस समय, फाल्गुन के अन्धःकारयुक्त पक्ष में, फरवरी या मार्च के १३ वें या १४ वें दिवस, एक लम्बी, अमावस का सा घना अंधियारा लिए, रात्रि का आगमन होता
है।
यह कोई साधारण रात्रि नहीं! यह आदि देव की पवित्र रात्रि है; यह शिव रात्रि है। शिव! जो शाश्वत प्रकाश का आरम्भ हैं।
“सृष्टि की उत्पत्ति से भी पूर्व,
केवल उन्हीं का अस्तित्व था।
उनके दर्शन भी ना हुए थे,
तब भी उन्हीं को पूजा गया,
उनके प्रथम दर्शन के पश्चात् तो,
वे सहस्त्रों के प्रिय हो गये।
शिव,
वे विपरीतता में भी परिपूर्ण हैं,
परम गुरु होकर भी क्षात्र नायक,
योगी, और आदर्श भर्ता भी,
भिक्षुक, फिर भी गृहस्थ,
ध्यानी, और नशे में चूर,
हिमालय से निश्चल, और नटराज भी।
शिव! वह मूल स्रोत,
जहाँ विरोधाभास का मधुर संगम है।
देवगणों में वे सृष्टि के लयकारक,
पर सरलता ऐसी कि,
शिवलिंग जैसे रम्य निराकार में,
शिवत्व समाहित “
महाशिवरात्रि भगवान शिव की भव्य रात्रि है, और शिव भक्तों के लिए श्रेष्ठतम है, जिसकी वे संपूर्ण वर्ष प्रतीक्षा करते हैं। ये विश्वभर में पूजन और नृत्य से, गीत-भजन और प्रार्थना से, समूह में हों अथवा एकांतवास में गंभीर तपस्या करते हुए तपस्वी, प्रत्येक भक्त द्वारा मनाई जाती है ।
हर मंदिर, हर घर में शिवरात्रि की धूम-धाम होती है। कोई शांत मन से प्रार्थना में मग्न है, तो कोई अति उल्लसितता से उत्सव मनाते हुए पूजा अर्चना में, कोई समाधिस्थ हो स्थैर्य में शिवत्व को अनुभव करता है तो कोई संगीत एवं वाद्यों संग भावपूर्ण नृत्य में झूम रहा है। इस रात्रि, हर भक्त का अपना भाव, अपना उत्सव और अपनी ही मस्ती होती है।
महादेव की रात्रि के इस उत्सव में बड़ा-छोटा, हर व्यक्ति भाग लेता है। चाहे दुष्ट हो अथवा धर्मनिष्ठ, दुर्बल हो या बलवान सभी उपस्थित होते हैं। किंतु क्या आपने कभी गौर किया कि भला क्यों मनाई जाती है शिवरात्रि? बहरहाल, इस तथ्य पर कुछ मतभेद हैं।
कुछ कहते हैं, “यह शिव का जन्मदिवस है”, कुछ पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कहते हैं कि ये शिव-पार्वती के विवाह की रात्रि है। कुछ लोगों के अनुसार इस दिवस का आरम्भ सर्वप्रथम नृत्य, तांडव नृत्य, से हुआ, तो कुछ इसे अगाध ज्ञान रुपी स्व-जागरण में प्रवेश की रात्रि बताते हुए कहते हैं, “यह शिव के अंतर्मन में जाग्रत, ब्रह्मांडीय चेतना के अस्तित्व धारण करने की रात्रि है। सर्वप्रथम चैतन्य जागरण, शिव की दिव्य ऋष्टि लयात्मकता की रात्रि।”
किंचित, शिवरात्रि पर्व का मनोहर तथ्य इन सभी में छिपा है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है, कि प्रत्येक भक्त शिवरात्रि के मनाए जाने के कारण पर अधिक मतभेद किए बिना, प्रेम से शिवाराधना करता है। आख़िर क्यों न हो? हर भक्त को पूर्ण अधिकार है कि वह अपने ईश्वर को स्वयं के भाव में, स्वयं के प्रेम में पूजे और आल्हादित हो। क्योंकि जिस प्रकार शिव में सब समाहित है उसी प्रकार शिवरात्रि भी इन तीनों से युक्त है।
शिव की प्रभा।
शिव का जन्म।
शिव का शक्ति से मिलन!
सृष्टि निर्माण करने के पश्चात, जैसे शिव को स्वयं को लुप्त करने की, पुनः अन्वेषण की और अन्ततः स्वयं को प्राप्त करने की क्रीडा में अत्यंत आनंद आता है। अतः जब वे ब्रह्मांडीय विश्व में प्रवेश करते हैं तो ऐसे, जैसे वे स्वयं ही अपना दिव्य उद्ग़म भुला चुके हों, वे स्वयं को पुनः पुनः प्राप्त करने हेतु ध्यान व आत्म चिंतन की पावन क्रिया में संलग्न होते हैं। उनकी यह दिव्य क्रीड़ा हम कई पौराणिक कथाओं में सुनते हैं।
गहन ध्यान में शिव, दिव्य चैतन्य से एकत्व प्राप्त कर, स्वयं के पराभूत अवस्था के प्रति जाग्रत होते हैं। यह वही अवस्था है जिसके उदय उपरांत सत्-चित-आनंद की निर्मल सर्वोच्चावस्था का आविर्भाव होता है।वे अपनी असीम सृजनशक्ति के साथ अपने आप को अत्यधिक उत्साहित अनुभव करते हैं, वही शक्ति, जो अनादिकाल से शिव में समाहित हैं।
शिव का पार्वती, अर्थात उनकी शक्ति के लिए परिबद्ध होना, उनकी शाश्वतता व अंतहीनता का चिह्न है। शिव, जो स्वतः अवतरित नहीं होते। यह देवी पार्वती की भक्ति है, जो शिव को प्रसन्न करने का सामर्थ्य रखती है।


शिव स्वरूपहीन हैं, किन्तु जब पार्वती का आगमन हो, तब वे रुप धारण करते हैं। केवल उस परम शक्ति के लिए, जो पूर्व जन्म से, जब वे सती के रूप में जन्मीं थीं, तब से उनकी अर्धांगिनी हैं।
वे उनकी शाश्वत प्राणप्रिया हैं, और वे एक दूसरे को जन्म-जन्म तक ब्रह्मांडीय काल के कोहरे में भी ढूंढ लेंगे। यह उनके प्रेम की विलक्षणता है। कितना आदर्श है यह प्रेम, जिसमें कभी अद्वैत था ही नहीं ।
जब दिव्यता अनेक को एक के रुप में अनुभव करती है, तब वह पूर्ण सनातन हो जाती है। और ऐसा एहसास होता है, कि शिव की समस्त कथाओं में मूल कथा, प्रेम कथा ही है। एवं यही मैं पुनः पुनः अनुभव करता हूँ।
ॐ नमः शिवाय
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आइए, हम इस पावन मिलन का अनुभव लेते हैं साधना ऐप् पर!
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श्री शैलेन्द्र गुलहाटी जम्मू के निवासी, लेखक एवं रहस्यवादी हैं। वे कश्मीर के शैव सम्प्रदाय से सम्बंध रखते हैं तथा छः प्रसिद्ध पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें ‘Shiva, The Ultimate Time Traveller’ – 1 & 2 प्रमुख हैं। वे शिव के समर्पित भक्त एवं अद्वेत के समर्थक हैं।