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ज्योतिर्मयी माँ दुर्गा

02/04/2022
वैदिक साधना टीम
ऋतुओं के इस परिवर्तन काल में जगत एक अस्थिर हलचल का सामना करता है। ठीक जिस प्रकार रात्रि, विश्राम एवं ऊर्जा प्राप्ति हेतु एक ठहराव प्रदान करती है, उसी प्रकार नवरात्रि भी भक्त को शांत व अंतर्मुखी हो, स्वयं के भीतर की शक्ति रूपेण स्त्रैण ऊर्जा को जागृत कर संतोष एवं दिव्यता का अनुभव करने का समय प्रदान करती है।
Navratri

ये दिन, आदिकाल से ऋषियों द्वारा अपनी गहन आध्यात्मिक तपस्या द्वारा संचित व संरक्षित ऊर्जा से ओतप्रोत हैं, जिन्होंने युग-युगांतर में देवी का आह्वान कर, देवी को जागृत किया।

आइए उस काल में चलें जब भीषण देवासुर संग्राम छिड़ा, क्योंकि वहीं छिपी है माँ दुर्गा के अवतरण की कथा का रहस्य!

एक महाभयानक दानव, ‘महिषासुर’ का जन्म एक दानव ‘रम्भा’ एवं एक मादा भैंसे ‘महिषी’ द्वारा हुआ। रम्भा ने अग्नि देव को प्रसन्न करने हेतु कई सहस्त्र वर्ष गहन तपस्या की, जब अंततः अग्निदेव प्रकट हुए, रम्भा ने उनसे एक अति शक्तिशाली, अजेय एवं बलवान योद्धा पुत्र का वर मांगा, जो त्रिलोक पर राज्य करे।

“तथास्तु! अपनी रुचि के अनुसार कोई भी स्त्री चुन लो, तुम्हें पुत्र की प्राप्ति अवश्य होगी”, इस प्रकार वरदान दे, अग्निदेव पुनः अपने लोक लौट गए।

 

अब रम्भा कामाग्नि मैं दग्ध था, जैसे ही वह वन से बाहर आया उसकी दृष्टि एक सुन्दर मादा भैंसे पर पड़ी, वासना ग्रस्त दानव ने उसके साथ ही समागम किया, एवं जब वह महिषी को अपने साथ पाताल लोक ले जाने लगा, तभी एक भयंकर भैंसे ने रम्भा पर आक्रमण किया एवं वहीं रम्भा की हत्या कर दी, महिषी ने भी रम्भा की चिता के साथ ही सती हो, अपने प्राण त्याग दिए।

तत्क्षण चितग्नि से एक अति तीव्र प्रकाश उत्सर्जित होने लगा एवं उसके साथ ही जन्म हुआ एक भयंकर रूप वाले बालक महिषासुर का, जो कि अर्ध मानव एवं अर्द्ध भैंसा था, कुछ क्षण पश्चात् ही दहकते लाल नेत्रों वाला तथा विकृत अंगों वाला एक और असुर बालक पैदा हुआ, यह कोई और नहीं, रम्भा का ही पुनर्जन्म था, जो ‘रक्तबीज’ नामक असुर के रूप में जन्मा था।

महिषासुर एक अनंत बलशाली असुर के रूप में उत्तरोत्तर विकसित होने लगा। उसकी शक्तियों का प्रभाव, दिग्-दिगन्तर में फैलने लगा, किंतु उसकी शक्ति अर्जन की पिपासा बढ़ती ही जाती थी। सहस्त्र वर्षों तक उसने भगवान ब्रह्मा की तपस्या की, रक्तबीज सदैव देवताओं से उसकी सुरक्षा हेतु उसके साथ रहता, अंततः श्री ब्रह्मा, महिषासुर की घनघोर तपस्या से प्रसन्न हुए एवं उसके सामने प्रकट हो, वरदान मांगने हेतु कहा। बिना एक क्षण भी गंवाए उसने ‘अमरत्व’ का वरदान मांगा।

जो भी जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, अमरत्व के अलावा कुछ भी मांग लो।” ब्रह्मदेव ने कहा।

“तब हे ब्रह्मा, आप मुझे ऐसा वर दें कि पृथ्वी, पाताल अथवा स्वर्ग, तीनों लोकों का कोई भी पुरुष मेरा वध न  कर सके, यदि कभी मेरी मृत्यु हो, तो वह एक स्त्री के हाथों हो।”

महिषासुर ने विचार किया, कि ‘स्त्री से क्या भय? कौन सी ऐसी स्त्री होगी जो उसका सामना कर सके?’ ब्रह्मदेव ने महिषासुर को उसका मनवांछित वर प्रदान किया, और विलुप्त हो गए।

समय बीतने लगा, महिषासुर अपनी शक्तियों एवं वरदान के फलस्वरूप, निर्बाध रूप से अपने बल का विस्तार करते हुए अब स्वर्ग लोक के स्वामी व बृहस्पति के शिष्य, ‘इन्द्र’ के विरुद्ध युद्ध हेतु सज्ज होने लगा। महिषासुर एवं उनकी समस्त सेना, हजारों वर्षों से इस युद्ध हेतु अथक परिश्रम कर तैयार थे, किंतु देवताओं ने तो स्वयं की शक्ति को भोग विलास में लिप्त कर, क्षीण कर लिया था।

महिषासुर को रोकना अब असंभव प्रतीत हो रहा था, उसने श्री विष्णु एवं महादेव से भी भीषण युद्ध किया। इस युद्ध में गरुड़ एवं नंदी गंभीर रूप से आहत हो गए, देवताओं की मनोदशा क्षीण होती जा रही थी, उन्हें लगने लगा था कि ब्रह्मदेव के वरदान के फलस्वरूप, महिषासुर अब अजेय हो चला है, अतः उनके समस्त प्रयास व्यर्थ हैं। देवतागण युद्ध छोड़, स्वर्ग को भी छोड़, घने जंगलों एवं गुफाओं में जाकर छुप गए। इंद्र की पराजय एक लंबे अंधकारमय एवं तमोगुणी असुरी ऊर्जाओं के वर्चस्व के युग का आरम्भ था।

कई वर्षों पश्चात्, देवता एक बार पुनः अपनी दयनीय एवं दु:खद मन:स्थिति से उबर, अपना आत्मविश्वास बटोरकर, ब्रह्मदेव एवं महादेव की शरण में पहुंचे। उनकी चिंता का विषय था कि आखिर महिषासुर का अंत कैसे हो? उत्तर ब्रह्मदेव के वरदान में ही निहित था। महादेव ने मंद मुस्कान के साथ बताया कि केवल एक स्त्री ही इस असुर का अंत करने में सक्षम है, अत: श्री विष्णु के निर्देशन में समस्त देवताओं ने निर्णय लिया कि वे सभी अपनी-अपनी दैवी ऊर्जा को जागृत कर, स्त्रैण शक्ति ‘महादेवी’ का आह्वान करेंगे, जो महिषासुर एवं अन्य आतताई असुरों का अंत करेंगी।

ब्रह्मदेव से एक रक्ताभ लाल रंग का प्रकाश उत्सर्जित हुआ, इसी प्रकार महादेव के धनुष से चमचमाती चंद्र किरणों का प्रकाश प्रकीर्णित हुआ, श्री विष्णु से आभामय नीलाभ प्रकाश चहुँ ओर विकीर्णित हो रहा था। ये तीनों ऊर्जाएँ रजस, तमस एवं सत्व गुण को समाहित किए हुए एक अतीव सौंदर्यमयी, बहुरंगी एवं दैवीय रूप से ओजस्वी प्रकाश में एकाकार हो गए। इस अनन्य, चमत्कारी घटना से विस्मित देवताओं ने भी अपनी अपनी  दैवीय ऊर्जाओं का योगदान दिया, अतिशीघ्र वे समस्त ऊर्जायें एक अति शक्तिशाली एवं तेजस्वी, अग्नांड में परिवर्तित हो गयीं, जिसके प्रकाश ने समस्त वातावरण को अपनी ऊर्जा से सरोबार कर लिया।

अग्निज्योति का प्रचंड ऊर्जा पुंज, अतिकम्पायमान नृत्य सा शोभित हो रहा था। इस ऊर्जा से एक स्त्री का रूप निर्मित होना आरंभ हुआ, ‘महादेवी दुर्गा’ का स्वरूप, जो सहस्त्र सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक तेजोमयी था, शनैः-शनैः पूर्णत: साकार हो गया। देवताओं ने इसके पूर्व ऐसा अलौकिक व अपूर्व सौन्दर्य न कभी देखा था, और ना ही कल्पना की थी, वे देवी को निहारते ही रह गए। माँ का स्वरूप अट्ठारह भुजाओं से युक्त था, जिसमें देवी ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए थे। देवी ने ऐसे आभूषण धारण किए थे, जो कभी किसी ने न देखे थे। माँ का रूप अनुपम था।

देवता मंत्र-मुग्ध हो, माँ को प्रणाम कर, माँ का स्तुतिगान करने लगे। ब्रह्मदेव ने समस्त देवी देवताओं को उनके सर्वश्रेष्ठ आयुध, देवी को अर्पित करने का निर्देश दिया। इंद्र ने अपना ‘वज्र’, यम ने ‘दंड’, श्री विष्णु ने अपने ‘सुदर्शन चक्र’ से ही निर्मित एक अन्य चक्र, महादेव ने अपने ‘त्रिशूल’ से निर्मित एक अन्य त्रिशूल, वरुण ने ‘जल-अंकुश’,  ब्रह्मा ने गंगाजल से पूरित ‘कमंडल’, एवं काल ने अपनी ‘कुल्हाड़ी’ आदि आयुध, देवी को अर्पण किए।

ऐसे अद्भुत दिव्य आयुधों से सुसज्जित देवी दुर्गा, अपने पूर्ण तेजोमय स्वरूप के साथ समस्त देवताओं के सम्मुख थीं।

देवताओं ने देवी को नमन कर, देवी से अभ्यर्थना की, कि वे उन्हें महिषासुर आदि असुरों के आतंक व अत्याचारों से मुक्त करें, उन्होंने देवी के समक्ष आर्त व करुण निवेदन किया।

देवी के मनमोहक मुख पर एक सम्मोहक मुस्कान फैल गयी, माँ मधुर वाणी में बोलीं, “ये कैसा अद्भुत दृश्य है, त्रिमूर्ति सहित समस्त देवता मेरे सम्मुख एक असुर से भयभीत खड़े हैं? निश्चित ही समय सबसे बलवान है।“ अपने वाहन सिंह पर, पूर्ण गरिमा के साथ विराजमान देवी महिषासुर, अन्य बलशाली असुरों एवं उसकी समस्त सेना का अंत करने, युद्ध हेतु सज्ज हो उठीं। देवताओं ने जयजयकार का उद्घोष किया, “सिंहवाहिनी माँ दुर्गा की जय हो!”, “विजयी भव!”, देवी जब युद्ध हेतु चलीं, उनमें एक वीर योद्धा, एक माँ, एवं एक रक्षक तीनों रूप साकार हो रहे थे।

माँ के युद्ध कूच के साथ ही देवताओं के जयघोष एवं माँ का अट्टाहास तीनों लोगों में गुंजायमान था। असुर अत्यंत विचलित हो गए। वे शीघ्रतापूर्वक महिषासुर को एक योद्धा सुंदरी के युद्ध क्षेत्र में आगमन की सूचना देने हेतु जा पहुंचे। अपनी वृत्तियों के वशीभूत महिषासुर के कलुषित हृदय में उस सुंदरी को पा लेने की वासना उत्पन्न हुई।

“उसे मेरे समक्ष प्रस्तुत करो”, वह गरजा, “उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषणों व उपहारों के साथ, मधुर वचनों से फुसलाकर यहाँ ले आओ, यदि वह विरोध करे तब उसे घसीटकर यहाँ लाओ। उसके हास की ध्वनि मुझे मुग्ध कर रही है।“

असुराधिपति से विवाह के प्रस्ताव पर देवी खिलखिलाकर हंस पड़ीं। देवी ने अपनी दृष्टि उन सैनिकों पर गड़ाई और बोलीं, “यदि तुम इस समय भस्मीभूत, धरती पर नहीं पड़े हो, तो सिर्फ इसलिए कि तुम अपने शब्दों एवं आचरण में सभ्यता पूर्वक व्यवहार कर रहे हो। मैं कोई साधारण स्त्री नहीं हूँ, जिसपर तुम्हारा अधिपति अपना अधिकार कर सके। जाकर कह दो अपने स्वामी से, कि उसकी मृत्यु एक स्त्री के रूप में उसके निकट आ चुकी है। महिषासुर व अन्य असुर इसी क्षण अपने वंश समेत पाताललोक प्रस्थान करें, अथवा मुझसे युद्ध कर एक सम्मानजनक मृत्यु का वरण करें।“ 

समाचार मिलने पर महिषासुर ने अपने मंत्रियों की एक बैठक बुलाई। कुछ कुत्सित दैत्यों ने देवी को एक अभिमानी स्त्री कहा, कुछ ने कहा कि उस देवी का जिद्दी स्वभाव, वस्तुतः उसका हमारे अधिपति के प्रति प्रेम है, किंतु एक बुद्धिमान मंत्री ने अपने राजा को देवी की अद्भुत दिव्यता के संबंध में बताते हुए सचेत किया, एवं समस्त असुरों समेत महिषासुर को पाताल लोक लौट चलने हेतु परामर्श दिया।

सभी की मंत्रणा को सुनने के पश्चात, महिषासुर ने धृष्टता पूर्वक देवी के विरुद्ध युद्ध का उद्घोष कर दिया।

पहले उसके साथ सज्जनों जैसा व्यवहार करना, उसे उपहारों द्वारा मनाने का प्रयत्न करो, यदि वह न माने तब युद्ध कर उसे मेरे पास ले आओ”, महिषासुर बोला।

असुर माँ दुर्गा के समक्ष युद्ध के लिए आते एवं इसके पूर्व कि वे माँ को ललकार भी सकें, एक ही वार में माँ उनका सर धड़ से अलग कर देतीं। माँ विद्युत की गति से उछलकर दैत्यों पर अपनी गदा से प्रहार कर उन्हें कुचलने लगीं। रक्तरंजित युद्धभूमि, विखंडित मुंडो एवं क्षत-विक्षत शवों से भरा हुआ रक्त कुण्ड बन गया।

अधिकतर असुरों का ध्यान देवी की सुगठित देहयष्टि एवं सौंदर्य पर ही केंद्रित था। वे उनकी शक्ति एवं दिव्यता का अनुमान ही नहीं लगा पा रहे थे। अलग अलग असुर देवी के समक्ष, कभी प्रार्थना करते हुए, कभी धिक्कारते हुए, तो कभी डराते धमकाते हुए अपने असुरराज से विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने हेतु दबाव डालने पहुंचे। प्रत्येक बार देवी ने उन्हें फटकार लगाते हुए अपना कथन दोहराया, “तुम और तुम्हारा राजा पाताल लोक लौट जाएँ, अन्यथा यहीं युद्ध करते हुए अपने प्राण त्याग दो।“

महिषासुर के समस्त सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए, तब वह स्वयं युद्ध क्षेत्र आ पहुँचा, वह एक ऐसी स्त्री के समक्ष जाने हेतु अत्यंत उत्तेजित था, जिसने उसकी समस्त सेना का संहार कर उसे ललकारा था। वह हर हर हाल में देवी पर अधिकार चाहता था, अतः उसने एक आकर्षक पुरुष का रूप धारण कर लिया। जब उसने देवी का प्रथम दर्शन किया, वह अपने नेत्रों पर स्वयं ही विश्वास न कर पाया। एक अपरिचित भय ने उसे ग्रस लिया, किंतु उसने इसे स्वयं से परे धकेल दिया।

“हे देवी! मुझे अपना दास स्वीकार कर लो, तुम्हारा अद्वितीय सौंदर्य शब्दों व प्रशंसा से परे है। तुम्हारा उपयुक्त स्थान तो मेरी रानी के रूप में मेरे साथ है”, महिषासुर बोला।

 

भगवती दुर्गा उसके शब्दों से अविचलित रह गरज कर बोलीं, “तू पाताललोक लौट जा अथवा युद्ध कर, अपनी भीषण मृत्यु हेतु तैयार हो जा।“

 

महिषासुर को अब अनुभव हो चला था कि यह स्त्री मेरा वध करने हेतु ही यहाँ आई है, वह तत्क्षण अपने नर भैंसे के रूप में परिवर्तित हो गया एवं धौंकनी की तरह श्वास भरता हुआ देवी की ओर पूर्ण शक्ति के साथ लपका।

उनके आयुधों की टकराहट की गूंज ने समस्त ग्रहों को कंपित कर दिया। महिषासुर ने माँ के वाहन सिंह को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया। किंतु सिंह ने अपने तीक्ष्ण दाँतो से उसके उदर को चीर डाला। महिषासुर ने अपनी समस्त शक्ति के साथ, अपने समस्त अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग किया, किंतु अंतत देवी ने दिव्य चक्र प्रक्षेपित कर, असुर का वध करते हुए युद्ध का अंत कर दिया, पलक झपकते ही उसका अहंकारपूरित शीश माँ के चरणों में लोट रहा था।

समस्त लोकों में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई एवं आनंद उत्सव की शंखध्वनि, दुंदुभी, झाँझ एवं स्वर्गीय संगीत से संपूर्ण ब्रह्मांड गूंज उठा। प्रकृति में पुनः सामंजस्य स्थापित हो गया था। देवताओं ने देवी दुर्गा के समक्ष अपना शीश नवाया। एक बार पुनः प्रकृति खिल उठी एवं समस्त जीव-अजीव माँ दुर्गा की कृपा से समृद्ध हुए।

महिषासुर वध कथा अनेक सत्यों का उद्घाटन करती है। सर्वप्रथम शिक्षा तो यही है कि चाहे कितना भी समय बीत जाए, किंतु सत्य की सदैव असत्य पर विजय होती है। यह कथा आत्मोद्धार के रहस्य से भी परिचित कराती है। महिषासुर एवं अन्य असुर हम मनुष्यों के भीतर काम एवं क्रोध आदि दोष ही हैं। जिनसे हम सदैव युद्ध करते रहते हैं। इस भीतरी देवासुर संग्राम में विजयी होने हेतु हममें अथाह इच्छा शक्ति एवं अटल निश्चय की आवश्यकता होती है। माँ दुर्गा की शक्ति, इच्छा शक्ति का प्रतीक है। हमें एकाग्रचित होकर, हमारी नकारात्मक प्रवृतियों से उबरकर ही आध्यात्मिक साधना में उन्नति करते रहना होगा। इस अपरिमित स्वातंत्र्य के पथ पर समस्त अवरोधों को, माँ दुर्गास्वयं ही अपना अनुग्रह, दया, एवं साहस देकर प्रेरणा दात्री बनती हैं।

 

 

इस शुभ नवरात्र हम भी माँ दुर्गा की भक्ति के इस पवित्र पथ पर, ‘साधना ऐप’ के साथ अग्रसर हों।

 

देवताओं ने देवी को नमन कर, देवी से अभ्यर्थना की, कि वे उन्हें महिषासुर आदि असुरों के आतंक व अत्याचारों से मुक्त करें, उन्होंने देवी के समक्ष आर्त व करुण निवेदन किया।

 

देवी के मनमोहक मुख पर एक सम्मोहक मुस्कान फैल गयी, माँ मधुर वाणी में बोलीं, “ये कैसा अद्भुत दृश्य है, त्रिमूर्ति सहित समस्त देवता मेरे सम्मुख एक असुर से भयभीत खड़े हैं? निश्चित ही समय सबसे बलवान है।“ अपने वाहन सिंह पर, पूर्ण गरिमा के साथ विराजमान देवी महिषासुर, अन्य बलशाली असुरों एवं उसकी समस्त सेना का अंत करने, युद्ध हेतु सज्ज हो उठीं। देवताओं ने जयजयकार का उद्घोष किया, “सिंहवाहिनी माँ दुर्गा की जय हो!”, “विजयी भव!”, देवी जब युद्ध हेतु चलीं, उनमें एक वीर योद्धा, एक माँ, एवं एक रक्षक तीनों रूप साकार हो रहे थे।

 

माँ के युद्ध कूच के साथ ही देवताओं के जयघोष एवं माँ का अट्टाहास तीनों लोगों में गुंजायमान था। असुर अत्यंत विचलित हो गए। वे शीघ्रतापूर्वक महिषासुर को एक योद्धा सुंदरी के युद्ध क्षेत्र में आगमन की सूचना देने हेतु जा पहुंचे। अपनी वृत्तियों के वशीभूत महिषासुर के कलुषित हृदय में उस सुंदरी को पा लेने की वासना उत्पन्न हुई।

 

“उसे मेरे समक्ष प्रस्तुत करो”, वह गरजा, “उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषणों व उपहारों के साथ, मधुर वचनों से फुसलाकर यहाँ ले आओ, यदि वह विरोध करे तब उसे घसीटकर यहाँ लाओ। उसके हास की ध्वनि मुझे मुग्ध कर रही है।“

 

असुराधिपति से विवाह के प्रस्ताव पर देवी खिलखिलाकर हंस पड़ीं। देवी ने अपनी दृष्टि उन सैनिकों पर गड़ाई और बोलीं, “यदि तुम इस समय भस्मीभूत, धरती पर नहीं पड़े हो, तो सिर्फ इसलिए कि तुम अपने शब्दों एवं आचरण में सभ्यता पूर्वक व्यवहार कर रहे हो। मैं कोई साधारण स्त्री नहीं हूँ, जिसपर तुम्हारा अधिपति अपना अधिकार कर सके। जाकर कह दो अपने स्वामी से, कि उसकी मृत्यु एक स्त्री के रूप में उसके निकट आ चुकी है। महिषासुर व अन्य असुर इसी क्षण अपने वंश समेत पाताललोक प्रस्थान करें, अथवा मुझसे युद्ध कर एक सम्मानजनक मृत्यु का वरण करें।“

 

समाचार मिलने पर महिषासुर ने अपने मंत्रियों की एक बैठक बुलाई। कुछ कुत्सित दैत्यों ने देवी को एक अभिमानी स्त्री कहा, कुछ ने कहा कि उस देवी का जिद्दी स्वभाव, वस्तुतः उसका हमारे अधिपति के प्रति प्रेम है, किंतु एक बुद्धिमान मंत्री ने अपने राजा को देवी की अद्भुत दिव्यता के संबंध में बताते हुए सचेत किया, एवं समस्त असुरों समेत महिषासुर को पाताल लोक लौट चलने हेतु परामर्श दिया।

 

सभी की मंत्रणा को सुनने के पश्चात, महिषासुर ने धृष्टता पूर्वक देवी के विरुद्ध युद्ध का उद्घोष कर दिया।

पहले उसके साथ सज्जनों जैसा व्यवहार करना, उसे उपहारों द्वारा मनाने का प्रयत्न करो, यदि वह न माने तब युद्ध कर उसे मेरे पास ले आओ”, महिषासुर बोला।

 

असुर माँ दुर्गा के समक्ष युद्ध के लिए आते एवं इसके पूर्व कि वे माँ को ललकार भी सकें, एक ही वार में माँ उनका सर धड़ से अलग कर देतीं। माँ विद्युत की गति से उछलकर दैत्यों पर अपनी गदा से प्रहार कर उन्हें कुचलने लगीं। रक्तरंजित युद्धभूमि, विखंडित मुंडो एवं क्षत-विक्षत शवों से भरा हुआ रक्त कुण्ड बन गया।

 

अधिकतर असुरों का ध्यान देवी की सुगठित देहयष्टि एवं सौंदर्य पर ही केंद्रित था। वे उनकी शक्ति एवं दिव्यता का अनुमान ही नहीं लगा पा रहे थे। अलग अलग असुर देवी के समक्ष, कभी प्रार्थना करते हुए, कभी धिक्कारते हुए, तो कभी डराते धमकाते हुए अपने असुरराज से विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने हेतु दबाव डालने पहुंचे। प्रत्येक बार देवी ने उन्हें फटकार लगाते हुए अपना कथन दोहराया, “तुम और तुम्हारा राजा पाताल लोक लौट जाएँ, अन्यथा यहीं युद्ध करते हुए अपने प्राण त्याग दो।“

 

महिषासुर के समस्त सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए, तब वह स्वयं युद्ध क्षेत्र आ पहुँचा, वह एक ऐसी स्त्री के समक्ष जाने हेतु अत्यंत उत्तेजित था, जिसने उसकी समस्त सेना का संहार कर उसे ललकारा था। वह हर हर हाल में देवी पर अधिकार चाहता था, अतः उसने एक आकर्षक पुरुष का रूप धारण कर लिया। जब उसने देवी का प्रथम दर्शन किया, वह अपने नेत्रों पर स्वयं ही विश्वास न कर पाया। एक अपरिचित भय ने उसे ग्रस लिया, किंतु उसने इसे स्वयं से परे धकेल दिया।

 

“हे देवी! मुझे अपना दास स्वीकार कर लो, तुम्हारा अद्वितीय सौंदर्य शब्दों व प्रशंसा से परे है। तुम्हारा उपयुक्त स्थान तो मेरी रानी के रूप में मेरे साथ है”, महिषासुर बोला।

 

भगवती दुर्गा उसके शब्दों से अविचलित रह गरज कर बोलीं, “तू पाताललोक लौट जा अथवा युद्ध कर, अपनी भीषण मृत्यु हेतु तैयार हो जा।“

 

महिषासुर को अब अनुभव हो चला था कि यह स्त्री मेरा वध करने हेतु ही यहाँ आई है, वह तत्क्षण अपने नर भैंसे के रूप में परिवर्तित हो गया एवं धौंकनी की तरह श्वास भरता हुआ देवी की ओर पूर्ण शक्ति के साथ लपका।

 

उनके आयुधों की टकराहट की गूंज ने समस्त ग्रहों को कंपित कर दिया। महिषासुर ने माँ के वाहन सिंह को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया। किंतु सिंह ने अपने तीक्ष्ण दाँतो से उसके उदर को चीर डाला। महिषासुर ने अपनी समस्त शक्ति के साथ, अपने समस्त अस्त्र शस्त्रों का प्रयोग किया, किंतु अंतत देवी ने दिव्य चक्र प्रक्षेपित कर, असुर का वध करते हुए युद्ध का अंत कर दिया, पलक झपकते ही उसका अहंकारपूरित शीश माँ के चरणों में लोट रहा था।

 

समस्त लोकों में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई एवं आनंद उत्सव की शंखध्वनि, दुंदुभी, झाँझ एवं स्वर्गीय संगीत से संपूर्ण ब्रह्मांड गूंज उठा। प्रकृति में पुनः सामंजस्य स्थापित हो गया था। देवताओं ने देवी दुर्गा के समक्ष अपना शीश नवाया। एक बार पुनः प्रकृति खिल उठी एवं समस्त जीव-अजीव माँ दुर्गा की कृपा से समृद्ध हुए।

 

महिषासुर वध कथा अनेक सत्यों का उद्घाटन करती है। सर्वप्रथम शिक्षा तो यही है कि चाहे कितना भी समय बीत जाए, किंतु सत्य की सदैव असत्य पर विजय होती है। यह कथा आत्मोद्धार के रहस्य से भी परिचित कराती है। महिषासुर एवं अन्य असुर हम मनुष्यों के भीतर काम एवं क्रोध आदि दोष ही हैं। जिनसे हम सदैव युद्ध करते रहते हैं। इस भीतरी देवासुर संग्राम में विजयी होने हेतु हममें अथाह इच्छा शक्ति एवं अटल निश्चय की आवश्यकता होती है। माँ दुर्गा की शक्ति, इच्छा शक्ति का प्रतीक है। हमें एकाग्रचित होकर, हमारी नकारात्मक प्रवृतियों से उबरकर ही आध्यात्मिक साधना में उन्नति करते रहना होगा। इस अपरिमित स्वातंत्र्य के पथ पर समस्त अवरोधों को, माँ दुर्गास्वयं ही अपना अनुग्रह, दया, एवं साहस देकर प्रेरणा दात्री बनती हैं।

जय जगदम्बे!

इस शुभ नवरात्र हम भी माँ दुर्गा की भक्ति के इस पवित्र पथ पर, ‘साधना ऐप’ के साथ अग्रसर हों।

 

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