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अनंत प्रेम

28/02/2022
वैदिक साधना टीम
निश्चल प्रेम के गूढ़ रहस्यों को जानें, जो काल व स्थान की परिधि से परे है, ओजस्वी पुरातन शास्त्र से प्राप्त, एक रोचक प्रसंग में।
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शिव-शक्ति

वैदिक धर्म के समस्त देवताओं में शिव के समान कोई नहीं। वे आदियोगी हैं, सर्वोच्च वैरागी, त्याग की प्रतिमूर्ति, एकमात्र विभूति जो जीतेंद्रिय हैं। 

महादेव किसी भी बंधन से परे हैं, यदि कोई बंधन है, तो केवल भक्ति का, प्रेम का।

शिवपुराण में वर्णित एक प्रसंग के अनुसार, श्रृष्टि ने अभी-अभी अपना स्वरूप धारण किया था। पृथ्वी देवी का रूप सौंदर्य एक अनन्य निखार से संवरा हुआ था। वे नव प्रसूता, माँ जो बनी थीं। मानवता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। धरती के समस्त प्राणी एक पावन, ज्योतिर्मयी ऊर्जा द्वारा प्रेम व सौहार्द के भाव में ओतप्रोत, सामंजस्यपूर्वक रहते थे। उनकी प्रार्थनाएँ स्वतः ही स्वर्ग में विराजित देवों तक पहुंचती थीं, क्योंकि उनके हृदय पवित्र व सरल थे, जिनमें सत्य का प्रकाश सदैव जगमगाता था। 

किंतु समय बीतता गया और त्रिगुणी माया का प्रभाव प्राणियों पर बढ़ता गया। सत्व, रजस व तमस के असंतुलन ने मानव की चेतना को अस्तव्यस्त करना आरंभ कर दिया। अंतत: कलिकाल में अज्ञान के घनीभूत आवरणों से मनुष्य की चेतना पूर्णत: जड़ हो गयी। फलस्वरूप मनुष्य व ईश्वर के मध्य सहज संपर्क सूत्र टूट गए।

मानव, ज्योतिर्मय दिव्य आत्माओं के रूप में अपने आनंद स्वरूप को भूल, दिव्यता से भटक गए। अहंकार और भौतिकता की अंतहीन क्षुधा में वे अपनी नैतिकता, अखण्डता एवं आत्मशक्ति खो बैठे।

स्वार्थ व लालसाओं के असमाप्य अंधकार में भटकते मनुष्य की आत्मा से शांति का लोप हो गया। यह अशांति सम्पूर्ण धरा के लिए घातक सिद्ध हुई।

अंतत: जब पृथ्वी के लिए यह दुख असहनीय हो गया तब एक क्लांत माता, अशक्त एवं शर्मसार, जिसकी संतान ने ही माँ के हृदय को, उसके सर्वस्व को, अपनी वीभत्स आकांक्षाओं में, अपने पैरों तले रौंद कर रख दिया था, अपनी करुण पुकार लेकर देवताओं के समक्ष जा पहुंची।

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देवताओं ने समस्या की गंभीरता को देख, ब्रह्मदेव की शरण में जाना उचित समझा। एवं चिंतित ब्रह्मदेव, देवताओं को साथ ले श्री विष्णु के धाम, वैकुण्ठ जा पहुंचे। 

वैदिक संस्कृति में ब्रह्मा सृजन का, विष्णु संचालन का, एवं शिव प्रलय का प्रतीक हैं। यही सृष्टि जन्य क्रम है। 

ज्यों ही वे नारायण, जो क्षीरसागर में अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ विराजमान थे, की नीलाभ ऊर्जा के निकट पहुंचे, एक परम पावन, जगमगाती आभा ने सभी के हृदय को हर लिया। कुछ क्षणों के लिए वे भूल ही गए कि उनके वहाँ जाने का क्या कारण था? प्रभु की सौम्य गरिमा ने उनके हृदयों को मोहित कर लिया। वे उनके गुणगान गाने लगे। 

दैदीप्यमान कमल नयन प्रभु ने जब उनकी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा, तो देवताओं ने उनके समक्ष अपने कर जोड़ विनती की; “हे पद्मनाभ! पृथ्वी की त्रासदी अब असहनीय हो चुकी है, धरती से प्रेम मानो लुप्त हो गया है, वह और अधिक इसका बोझ वहन करने में अक्षम है। कृपा कर कुछ ऐसा करें, कि संतुलन पुन कायम हो सके। महादेव तो अपनी समाधि में लीन, योगानंद में निमग्न हैं। हम उनसे प्रार्थना करने के इच्छुक हैं कि वे मानवीय चुनौतियों को सुलझाने, व हमारी समस्या का समाधान करने में सहायता करें। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें। 

श्री विष्णु कुछ क्षणों के लिये मौन विचार में डूबे रहे, फिर ब्रह्मदेव की ओर स्मित मुख के साथ देखने लगे। जैसे इस समस्या का समाधान दोनों को एक साथ सूझा हो, वे एक स्वर में बोल उठे, “शिव को विवाह सूत्र में बंधना होगा।”

देवताओं में आश्चर्य की लहर दौड़ गई, कुछ ने भौंचक हो अपने गले साफ करने शुरू किए, तो कुछ खाँस पड़े। वे तो इन एकांतवासी योगी के गृहस्थ रूप की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

 

अब देवता गण, परम ओजस्वी, पूर्ण भव्यता में स्थित, शिव के निवास स्थान पवित्र कैलाश पर्वत के निकट पहुंचे, दिव्यता की प्रतिमूर्ति महायोगी शिव की आकर्षक छवि उन्हें दूर से ही दिखाई देने लगी। कितनी अद्भुत सुंदरता! 

शांत और सौम्य, अति रूपवान देवाधिदेव पर्वत के शिखर पर, उस पर्वत की ही भाँति निश्चल विराजमान थे। केवल शांत मंद बयार उनके पावन शरीर को स्पर्श करते हुए बह रही थी। उनके शरीर पर लगी हुई भस्म, हिमकणों व हवा में मिश्रित हो, देवताओं को आकर कुछ इस प्रकार स्पर्श करने लगी मानो उन्हें महादेव का आशीर्वाद मिल रहा हो। शिव की देह पर पड़े हिमकण, उनके तपोबल की उष्णता से पिघलकर उनके शरीर पर प्रकाश कणों की भाँति दमक रहे थे।

वे आहिस्ता से कदम रखते हुए महादेव के निकट पहुंचे एवं आदरपूर्वक उन्हें अपनी ध्यानावस्था से बाहर ले आने हेतु उनका स्तुतिगान करने लगे। महादेव ने अपने मादक अधखुले से नेत्रों को धीमे से खोला, समस्त देवताओं को अपने सम्मुख देख, आनंदित हो बोले, ”आप सब यहाँ! विष्णुदेव, ब्रह्मदेव, सब कुशल तो है?”

सर्वप्रथम ब्रह्मदेव ने ही कथन आरंभ किया, “हे महाकाल, देवों के देव, पृथ्वी को पुनर्जीवन देने की आवश्यकता है। मनुष्यों की उनके दुखों से रक्षा हेतु हम सोच विचार कर रहे थे कि यदि आप… मेरा अर्थ है कि यदि…ऐसा संभव हो सके…?

वे अपना कठन पूर्ण कर ही नहीं पा रहे थे। शिव के तेज के सम्मुख, उनकी वैराग्य पूर्ण ओजस्विता के सम्मुख, वे भय का अनुभव कर रहे थे। अंततः श्री विष्णु ने बागडोर संभाली, “आपको विवाह करना होगा महादेव!” 

हैरानी में शिव की भृकुटी वक्राकार हो उठी। वे अचंभित हो बोले, “विष्णुदेव मुझे क्षमा करें, मुझे मेरी स्वतंत्रता प्रिय है। मैं ठहरा एक साधु। एक स्थान पर टिकता नहीं, कभी श्मशान, तो कभी अंधेरी गुफा, कभी भयानक वन, तो कभी निर्जन पर्वत, मैं सदा ध्यान में लीन रहता हूँ। इस झंझट में मैं नहीं पड़ता। आप स्वयं ही देखिए, मैं यहाँ बैठा हूँ, श्मशान की भस्म लपेटे, क्या मैं आपको किसी भी दृष्टि से पति बनने योग्य जान पड़ता हूँ? कोई भी स्त्री, मेरे जैसे संन्यासी के साथ, जिसे ना कोई आकांक्षा है ना आवश्यकता, कौन सा सुख पा सकेगी? मेरा तो कोई स्थाई भवन इत्यादि भी नहीं है। क्या आपको नहीं लगता कि आपके प्रस्ताव पर आपको पुनर्विचार करना चाहिए? आप सब तो विवाहित हैं ही, मुझे क्षमा करें।“ 

भगवान विष्णु किंचित गंभीर स्वर में बोले, “महादेव, कृपया समझने का प्रयत्न करें, आपका कार्य आपकी अर्धांगिनी के बिना अधूरा है। आपके धर्म पालन हेतु यह अनिवार्य है।”

भोलेनाथ, जो किसी भी विनयशील मनुहार को ठुकराने में सदा असमर्थ रहते हैं, विशेषकर श्री विष्णु की प्रेमपूर्ण मनुहार, शिव आकर्षक मुस्कान के साथ बोले, “अगर आप सभी की यही इच्छा है, और यदि यही सृष्टि के हित में अनिवार्य है, तो उचित है। किंतु मेरी चार शर्तें हैं, जो भी कन्या से मेरी इन समस्त शर्तों को हर-हाल में पूर्ण करेगी उसी से मैं विवाह कर सकूंगा।”

सभी देवतागण अति उत्साहित हो, एक स्वर में बोल उठे, “वे क्या हैं महादेव? हम जानने को अधीर हैं।” देवता शिव के विवाह हेतु मान जाने पर अति उत्साहित थे। 

शिव बोले, “जो भी हो, मैं सदैव एक योगी था, हूँ, तथा रहूंगा”, अतः मेरी प्रथम शर्त है कि जब भी मैं अपने योगी भाव में रहूँ, कन्या भी योगिनी भाव में ही रहे।

“बिल्कुल ठीक, आप समझिए कि यह हो गया, आप अपनी दूसरी शर्त बताएं”, देवताओं के चेहरे खिल उठे। उनकी आँखों के समक्ष कई प्रतिभावान योगिनियों के चेहरे घूम रहे थे। 

महादेव आगे कहने लगे, “मेरी द्वितीय शर्त है कि जब मैं एक पुरुषभाव, काम भाव में आरूढ़ हो, आनंद व प्रेमक्रीड़ा में संलग्न होना चाहूं, तब वह भी एक प्रेमातुर संगिनी की भाँति मेरा वरण करे।”

 “अवश्य, महादेव, बिलकुल उचित बात है”। देवता एक दूसरे की ओर चोर दृष्टि से ताकते हुए बोले। “अपनी भार्या में आप और किन गुणों की अभिलाषा रखते हैं? कृपया बताएं।”

शिव आगे कहने लगे, “तृतीय उपबंध यह है, कि जब भी मैं समाधिस्थ रहूँ, वह कदापि मेरी समाधि भंग करने का प्रयास न करे, अन्यथा इसके अति गंभीर, भीषणतम परिणाम समस्त ब्रह्मांड को झेलने पड़ेंगे। कृप्या इस महत्वपूर्ण तथ्य को ध्यान से सुनें, कि वह कदापि मेरे ध्यान में बाधा ना उत्पन्न करे, उसे सदैव मेरा सहयोगी ही रहना होगा”। 

जिन देवताओं के चेहरे अब तक उमंग से खिलते जा रहे थे, अब थोड़ा मुरझाना शुरू हुए। देवतागण अब तक शिव को विवाह के बंधन में बाँध सकने की आशा में प्रसन्न हो रहे थे, अब द्र्श्य परिवर्तित प्रतीत होता था, मानो वे शिव को नहीं, शिव उन्हें बंधन में कसते जा रहे हैं। 

“और मेरी अंतिम शर्त”, शिव बोले, “जिस पल उसका मुझ पर से विश्वास खंडित होगा, वह हमारे गठबंधन का अंतिम दिन होगा। शिव सदा सत्य भाषी हैं, यदि उसे लेशमात्र भी मेरे कथन पर संदेह हुआ, तो हमारे पथ विलग हो जाएंगे।”

ब्रह्मा जी, विष्णु जी की ओर ताकने लगे, उनमें विचारों का परस्पर आदान प्रदान हुआ, “शिव आखिर किस लोक की बात कर रहे हैं? क्या अब तक ऐसी कोई स्त्री हुई है? त्रिकालज्ञ शिव ने कभी विवाह तो किया नहीं, वे क्या जानें कि वे क्या मांग रहे हैं!”

 शिव उनके विचारों को भांप, मन ही मन मुस्कुराए, और प्रतीक्षा करने लगे कि कब देवगण प्रस्थान करें, तो पुनः अपनी परमानंद समाधिवस्था में लौटें। 

अब ब्रह्मा जी ने बात को संभालने की कोशिश की, बोले- “महादेव, क्या ऐसी कोई भी स्त्री इस संपूर्ण जगत में है? केवल आप की शक्ति ही ऐसा संभव कर सकती है, केवल पराशक्ति, पराम्बा जो आपसे ही प्रादुर्भूत हों, आपके समान हो सकती हैं। क्योंकि प्रभु, आपके समकक्ष-आपकी संगिनी, केवल आपकी ही ऊर्जा द्वारा उत्पन्न होना संभव है।”

शिव ने आंखें मूँद लीं, उनके अन्तर्मन में एक खिंचाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने स्वयं में एक तीव्र ऊर्जा का अविर्भाव अनुभव किया, स्त्रैण ऊर्जा के नाद, “ह्रीं” की लहर उनके सर्वस्व को तरंगित कर गई। उनका हृदय इस प्रकार तीव्रता व अंतरनाद के साथ धड़कने लगा, मानो उनके त्रिशूल में बंधा डमरू, डमक-डमक बज रहा हो। 

उसी क्षण, शिव के अंतर्मन में अति सुंदर, तेजोमय, मत्स्याकार दो नैनों ने उनकी ओर देखा। उन नयनों ने शिव के अंतरतम को असंख्य सूर्यों के प्रकाश से आपूरित कर दिया। शिव को प्रतीत हुआ मानो वे स्वयं के ही प्रतिरूप का साक्षात्कार कर रहे हैं। 

अपनी इस दिव्यानुभूति को महायोगी शिव ने, वैराग्य भाव में स्वयं से दूर छिटकाना चाहा, किंतु संभव ना हुआ। 

किंतु तभी, मानो शिव की चेतना से एक पर्दा उठा, धुंध का एक बादल विलीन हुआ, उन्होंने स्वयं को कैलाश से दो अरब प्रकाशवर्ष की दूरी पर स्थित एक ग्रह पर बने, एक भव्य मनोरम, अकल्पनीय सुंदर राजप्रसाद में पाया। कोई भूली-बिसरी स्मृति स्वयं ही उनके मानस पटल पर उभर पड़ी, जब उन्होंने पायल के घुंघरुओं की मधुर झंकृति, एवं कंगनों की मीठी खनक को सुना। देवी की मंद सी हलचल से भी उनके कंगन खनक उठते थे। “यह तो चिंतामणि गृह है! उनकी नित्य संगिनी, उनकी आध्याशक्ति का निवास।”

देवी उनके सम्मुख थीं। महादेव ने उनकी ओर पग बढ़ाए, उन्होंने स्वयं के हृदय में अगाध प्रेम को अनुभव किया, देवी के सम्मोहक स्वर उन्हें सुनाई दिए, “आपका स्वागत है नाथ…”, शिव ने दौड़कर देवी को छूना चाहा, “वरानने…

यकायक उनकी वह स्वप्नानुभूति टूट गई, उन्होंने स्वयं को कैलाश पर पाया, समस्त विस्मित देवताओं के समक्ष। शिव के मस्तक पर स्वेदकण उभर आए। वे देवी के पास पुनः लौट जाना चाहते थे।

वही तो उनकी प्रिया हैं, उनकी शक्ति, उनका सत्व। उनके बिना शिव, शिव नहीं, ‘शव’ हैं,निष्क्रिय व निष्प्राण।

तत्क्षण ब्रह्मदेव ने उन्हें, उनके इस संताप से उबारा। वे बोले, “प्रभु, आपको अवश्य ज्ञात होगा कि मेरे पुत्र दक्ष ने, देवी दुर्गा से यह वरदान प्राप्त किया था, कि वे उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेंगी व आप से विवाह के बंधन में बँधेगीं। प्रभु उस कन्या का नाम सती है। वे आदि शक्ति पराम्बा का मानवीय जन्म है, जिसने अपनी समस्त आयु, आपकी आराधना में व्यतीत की है। वे आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं, प्रभु। वही आपकी संगिनी बनने योग्य हैं।”

 

महादेव बमुश्किल अपनी संवेदनाओं को सभी से गुप्त रखने का प्रयास कर रहे थे। शिव तत्पर थे, सती, जो न जाने कब से, प्रतिक्षण, आतुरता से अपने स्वामी की प्रतीक्षा में थीं, के समस्त प्रकट हो उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर उनका वरण करने हेतु। 

…और इसके पश्चात जो हुआ। वो तो स्वर्णिम इतिहास है। 

 

महा शिवरात्रि, शिव की शक्ति से मिलन की रात्रि है। अनंत प्रेम की रात्रि। शक्ति, जो शिव की ही अनंत ऊर्जा हैं। उनकी तेजोमय प्रभा, जो प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं, शिव की शिवा। जिनको शिव ने मानवता के प्रेमपूर्ण उत्थान के लिए जागृत किया।  

निश्चल प्रेम का भी यही रहस्य है। वह बाह्य नहीं अपितु अंतरतम हृदय में निवास करता है। 

वह पुनीत प्रेम स्वतः उदित होता है, जब हम एक प्रेममय व संवेदनशील जीवन जीते हुए, प्राणिमात्र के हित में रत होते हैं। 

जब हम निष्कपट हो, सभी के लिए करुणा व प्रेम का भाव रखें, वही भाव, वही ऊर्जा, पुनः हममें प्रतिबिंबित होती है, और जैसे-जैसे यह प्रेम बढ़ता है, अंतर आत्मा का ज्योतिर्मय स्वरूप जागृत होने लगता है। इस स्वभूत प्रेम के जागरण व अभिव्यक्ति हेतु यदि कोई सर्वोत्तम वेला है, तो वह है, शिवरात्रि!

शिवलिंग, शिव व शक्ति के अंतरतम एकत्व का प्रतीक है। इस महाशिवरात्रि, साधना ऐप पर, शिवलिंग का अभिषेक कर, इस मंगलमय प्रेम ऊर्जा को जाग्रत करें । 

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